Tuesday 21 October 2014

लफ्ज़

बड़ा घिसा था पेन को मेने अंधेरे से घुलसी उस चाँद के रोशनी मे! एक अजीब से उत्साह उकरने लगता है लिखते-लिखते के रात का पता लापता-सा हो जाता था और मुझे कोई फरक भी नही पड़ता..मे बेहोश मदहोश..अपने ख्यालो की मौजो मे कश्ती ताएराता रहता.. मे बस एक बेबाक बेधड़क सिपाही की तरह अल्फाज़ो को आज़ाद करके..उन्हे काग़ज़ पे काली स्याही के सुलझने वाले गुच्छे बना लेता था! 

ज़्यादातर जुड़ने वाले लफ्ज़ मेरे ज़िंदगी के दफ़्न हुए वकीये होते थे!

पर आजकल अजीब सा खाल है.. मेरी ज़िंदगी को लेकर.. रूठ गये है.. वो क़लम, वो काग़ज़ और वो ख़याल मुझसे.. ना जाने क्यूँ दस्तक ना देते अकेलेपन मे मेरा.. क्या धोखा दिया मेने या बेवफा कर दिया उसे जज़्बे के प्यार को! नफ़रत नही है.. शायद वक़्त से डर गये है..और चुप के बैठे है किसी कोने मे!
मे भी वाकिफ़ हू और जाहिल हू के इस तालीम मे अपनी खूबी को पीछे कही छोड़ता जा रा हूँ!
फिर वापस एक माचिस की तिल्ली जालायी है..इसी के घरोंधे मे और वादा है मेरा ख़यालो से के भरे गुबारो की तरह यू ही आसमान मे गायब ना होने दूँगा.. बना लूँगा एक तस्वीर तुम्हारी काग़ज़ो मे अक्सर!


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