अब ये शहर काटने को दौड़ता है। स्ट्रीट लाइट्स की छपाई से उतार आने वाली मेरी ही परछाई मुझसे हज़ारो सवालो की नुमएन्दे छोड़ देती है। हज़ारो जवाब तलाशती है! ना तो अब मुझसे भीड़ दिखाई देती है, ना गाड़िया के हॉर्न और ना ही लोगो की बात-चीत की भिन भिनाति हुई आवाज़े। हर चाल और हर शे के साथ नीचुड्ता जाता है मेरे सुन से पड़े चेहरे का रंग। मेरी आँखे कुछ खोखले से ज्ञान के पीछे निरंतर दौड़ने मे ख़स्ता हो गयी है। रंगत बदल गयी है इन आँखो की शक्ल की। ये उस काले रंग के तालाब जैसी हो गयी है जिसमे इंडस्ट्रीयो का ज़ेहर छोड़ दिया जाता है और इस वजह से शायद कोई शख्स हिम्मत भी नही करता इसमे गौता लगाने का.. खुद मे भी नही!