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Tuesday, 12 November 2013

मुसाफिर

यू राह को हमसफर समझे मुसाफिर
क़ैद आँखो मे नज़ारे
और घर लगे काफ़िर
में भी लाँघ अपनी सीमा तोड़,
निकल गया कदमो से दुर
मंज़िल नही मेरी राह है फितूर
भागा सपनो की तलाश मे
तन्हा लहराता एक –पंछी बे आस मे
उड़ने से पहले मुझे तोड़ा दर है.
संबे उड़ान तो सफ़र बे सब्र है
चाहे चेहरे बदल रहे
लम्हे सारे फिसल रहे
कोई तेरा नही सागा है
ये जो साथी मुझे मिला है
दूरियो पे ख़तम इनका सिला है
जैसे रेत के वक़्त है ज़्यादा
कोई और भी है
जिससे इंतेज़ार करे वो एलहदा!



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