Sunday, 11 January 2015

एक फिराक़

सबका पता नही पर ज़्यादातर लोग एक उम्र मे आके कही अंजान जगह मे भाग जाने की साची फिराक़ मे रहते है.. खैर, वो शायद दिलो के खलिश को शब्दो मे ज़ाहिर नही कर पाते पर अंदर एक बवंडर पनपता रहता है. पर क्या करे..रिश्ते, मजबूरियो की बेड़िया बंदिशे बनकर एक पिंजरे तक मे जीने की आज़ादी देते है. वो आज़ादी जो मूह पर हँसी लेपने की बुरी आदत भी सीखा देती है. आजिसी का दरिया कभी करवाते पलट ता थोड़ी है.
काश गुमनामी का कोई समुंदर होता और उमसे गोते लगाकर डूब जाना भी आसान होता. तो गुम हो जाते एक अपनी-अपनी कहकशाओ मे.

और हां! ये अंदर की बात है किसी को बताना नही. श्श्श्!!

No comments:

Post a Comment