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Saturday, 9 May 2015

अंधी मशाले

अँग्रेज़ी मे जिसे रेवोल्यूशन कहा जाता है 'क्रांति'। ये बड़ा ही कट्टर, क्रूर और मज़बूत सा लफ्ज़ है. बदलाव और तब्दीली प्रतीत करने वाला ये लफ्ज़ विचारधाराए की अंधी भीड़ मे ले डुबोता है लाठी वाले गाँधी बाबा ने शायद MBA की Anger Managerment की ज़बरदस्त रुझान वाली क्लासो मे उपस्तिथि दाखिल की होगी की सालो-साल तक उनका क्रोध अहिंसा मे ना बदला जब गुस्सा आता, वो बाहर से नही, अपने अंदर से लड़ लेते. कभी मौन व्रत, कभी आमरण अनशन या खादी-मे होने की प्रेरणा

पर क्रांति मे 2 तरह के लोग सहयोगी होगी है एक जो नारा का पहले वक्ये बोलता है और दूसरा जो बचा कूचा बोलता है पहले वाली आवाज़ बुलंद और कान मे धप्प सी गूँजती और दूसरे वर्ग की आवाज़ मे कंपन, गूँज और वेराइटी होती है आगे से एक ज़बरदस्त बुलंद आवाज़ मे नारा लगता है - "इंक़लाब" पीछे खड़े सारे लोग चिल्लाते है -"ज़िंदाबाद" जैसे हवा मे Sin-Cos की तरंगे फैल रही हूँ. एक वक्ता हज़ार श्रोता एक अनार सौ बीमार!

बचपन मे बेगपाइपर और चूहे वाली कहानी तो याद होगी ही, चूहो के आतंक से परेशन गाँववाले गाँव से सारे चूहो को खदेड़ने के लिए बेगपाइपर को बुलाते है और उसकी ध्वनि सुन कर के सारे चूहे पीछे पीछे आने लगते है
और वो उन्हे ले जा के उन्हे खाई मे फेक आता है
वैसे में बाल की खाल नोचने मे ज़्यादा वक़्त ज़ाया नही करता पर अब ऐसा सोच के देखे अब इस कहानी मे चूहो की क्या मानसिकता रही होगी, वो जिस सुरीली वाणी मे मदमस्त थे वो उन धुँओ मे जितना खोते रहे, उतनी ही दीवानगी सर चढ़ने लगती वो सुरीले नगमे उनको 'ब्रेन वॉश' करने की प्रक्रिया मे शामिल था वो सुरीली आवाज़ ने उन्हे मारने की सुपारी ली थी पर उनके लिए वो सुरीली आवाज़ थे और वो धुन मे धुत थे.
खैर, ज़्यादातर उधारण मे ऐसा ही होता है. बेगपाइपर आपके सपनो का शोषण करता है और धकेल देता है एक अनंत खाई मे!

वो अंधी मशाले जो किसी ने जलाई थी, धीरे धीरे आग का मतलब और मकसद भूल जाती है जब आग का व्यापार होने लगता है, तो हवा भी साजिश करती है आगो से, के वो जलती भी रहे और बुझ भी ना पाए
तो सबसे बेहतर तामीर यही हो सकती है के पहले तो आग तो ना ही पकड़ो तो बेहतर है क्यूंकी किसी ने कहा है "आग से खेलो तो हाथ तो जलेंगे ही" बेहतर है दूर रहो या "ऐसा ही होता आ रहा है" या "जाने दो" की तसल्ली दिल पे हाथ रख कर दे दो पर खुदा ने इंसान को सोच समझने की ऐसे ताक़त दी है के दिल की किसी ना किसी कोने मे शिकवा, गुरूर या प्रतिशोध का जुगनू दिल मे घुसा ही रहता है अब ये आप पे है के आप उस आग को अपने लिए ज़रूरी समझते है या नही अगर ज़रूरी है तो भी आग अगर सर्दिया मे अलाव बन रही है तो ठीक है वरना गर्मियो मे अलाव! आप समझदार हो!

Monday, 5 January 2015

1 जनवरी 2015

नये साल के कपड़े पहन लिए है. चलो दुविधाओ से मुक्त, नयी दिशाओ को पंख लगाने के लिए 2015 गया है. कल मुझे बहुत बुरा लग रहा था के 1 जन्वरी जो छुट्टी घोषित थी कंपनी मे पर क्यूंकी हमारा सपोर्ट प्रॉजेक्ट है मतलब 24/7 वक़्त मे क्लाइंट के साथ सहायक रहना है. आज मुझे जाना है दफ़्तर चाहे कितनी ही घिंन कर लो. कल की पार्टी मे जो नाचे थे, टाँगे अभी भी दुख रही है. देरी से उठा था पर ऑफीस जाने मे भी अभी कुछ वक़्त है. पर वो भी खाने, नहाने, मेसेजस का जवाब देने मे दर्याफ़्त हो चुका था. Whatsapp के सारे Messages भी नही पढ़े थे पर उसका कोई मतलब भी नही था, सब एक ही जैसे थे.

बहुत आजिसी है के नये साल के पहले दिन मे ऑफीस जाना पड़ रहा है. शायद कुछ ही ऐसे बद-बदनसीब होंगे जिनके साथ ऐसा सुलूक मुनासिब होता है. गुस्सा भी बहुत है, पर वो कहते है ना नौकरी और औलाद के सामने किसी की नही चलती. तो कितनी भी रुसवाई हो, जाना पड़ रहा है..
Cab आई लेने के लिए.. .Evening shift थी और ये मनहूस मौसम भी इतना ज़ुल्मी हो रहा है, हल्की हल्की बारिश और शून्य उमस. मजबूरी साहब!

ऑफीस के गेट से मे जब दाखिल हुआ तो जो मेरा डी तफ़तीश करने वाले सेक्यूरिटी गार्ड्स वही थे. बारिश से जो गंदे जूते के कदम और छींट फर्श पर बाक़ी रह गये थे, उससे साफ करने वाली बूढी औरत जो Cleaning स्टाफ वाली Dress मे थी. वो भी वही थी. अपने हुलिए और मूह-हाथ ढोने के हिस्सब से वॉश-रूम की और बड़ा. तो वॉशबेसिन और पेपर रोल को अपनी जगह रखने वाल लोग वही थे. रोशनी कम थी. स्टाफ भी कम था. मतलब बिल्कुल ना के ही बराबर.
सारे मेल्स चेक करके जब लंच करने कॅंटीन मे गया, वो लोग भी वही थे.
सब तो वही थे तो क्यू मुझे मेरी बदनसीबी का रोना रहा था. मेरी ऑफीस के सहकर्मी नही थे पर वही सब थे.

कुछ पुराने पड़े कंप्यूटर्स और वाइरिंग को दुरुस्त और चेक करने वेल लोग भी वही थे. उन सब की शकल की लिखावट मेने पढ़ी नही,पर सच तो ये है के मेरी शाकले पढ़ने की हिम्मत भी नही हुई. मे तो सिर्फ़ एक दिन के ही मजबूरन मोजूद्गी से इतना खफा था. बेचारे ये सब लोग जो हुमारे सपोर्ट मे सपोर्ट करते है. अगर हम मे से एक भी शख़्स को रात को आना पड़ता है, तो ये बेचारे भी तो आते है.
Coorporates का हिसाब-किताब इसलिए भी मुझे नही पसंद.
पर ये मेरी ख़ुशनसीबी है ये मेरी पयदैश एक अच्छे और पढ़े-लिखे कुनबे मे हुई है. अच्छी शिक्षा से इतना फरक पड़ सकता है, आज उसका ये चेहरा भी देखना पड़ेगा. मेरे खुशनसीब होने का स्लीडेशोव ज़हेन के सामने झलकने लगी. पर अंदर एक खाला सी हुई के इतना फरक क्यूँ? काश मेरी पेदईश कमतर घराने मे होती तो क्या मे कंप्यूटर के सामने वाली सीट पे सुकून से बैठ पता या 10 घंटे खड़े रहकर सबके डी कार्ड की तफ़तीश पड़ती. इतनी एहमियत भी होती नौकरी की अगर इतनी आसानी सी मिल जाती.
जब मे 31 डिसेंबर को नाच रहा था और खुशी सी झूम रहा था तब आधा जाग अपने पेट पालने के लिए काम कर रहे थे के उसे रोज़ वो भूके ना सोए.

नया साल अब अच्छी सोच के साथ गुज़रेगा J