कुछ हफ्ते पहले फ्लिपकार्ट
पर यूँ ही घूमते हुए मेरे मन मे ना जाने कैसे हिन्दी से वापस परिचित होने का मन किया
और मैं वेसे ही हिन्दी नॉवेल्स की सुनसान सी भीड़ मे पहुँच गया! थोड़ा स्क्रोल किया तो एक नॉवेल के शीर्षक और उसके कवर के चित्र ने मुझे सम्मोह लिया, जैसे मैं उसी को ही
खोज रहा था! कीशोर चौधरी की लघु कहानिया की पुस्तक - "चौराहे पर सीडीया" बहुत सालो बाद मुझे हिन्दी सहित्य की उन बिछड़ी हुई गलिया मे ले गयी जहाँ कभी मुंशी प्रेम
चन्द जी ज़हन को टेहलया करते थे! थोड़ा बहुत नवीनता का वॉर्क चड़ा हुआ है पर वो भी
सहित्य पर हावी नही हुआ! साहित्यकार की सारी कहानियो मे उदासीनता एक आम ज़मीन की तरह
है! पर कहानिया होकर भी एक नही लगती, सबमे अलग दर्पण है, अलग पहलू है! देखा जाए तो
वक़्त को रोक कर गहरे निंदन के बाद हर एक एहसास और हर एक पहलू की गहराई मे जा कर लिखा
गया है! कहानिया मे उत्पीड़न,छल-कपट और पीड़ा के साथ साथ ज़हन मे आनी वाली हर दुविधा
को बखूबी काग़ज़ पर लिखा गया है! कुछ एक कहानी सुख और हॅसी पर तो सही पर वो हॅसी भी नही, ज़िंदगी
पर कसे व्यंग है या फिर तूफान के बाद की शांति है!
वैसे मे भी राजस्थान
- जैपुर का निवासी हूँ तो भाषा मेरे लिए व्यावहारिक सी ही है पर भाषा के मामले मे मोज़ार्ट है पर कीशोर साब! हर एक शब्द बखूबी अपनी एहमियत
रखता है और हर एक दर्द को जुऊँ-से-त्यु सामने लता है!! कहानियो मे राजस्थान की खुश्बू और गाँव की जीवन शैली को भी बखूबी दिखलाया गया है!
सारी कहानिया भाषा
की धनी है, भावना से पूर्ण है पर कहानिया अधूरी है, पीड़ा है उनमे!
अगर आप सिर्फ़ मसाला
कहानियो को पढ़कर चटखारे लेना चाहते है तो ये किताब उस तरह की नही है! दिल से अगर पूछ
पूछ कर पढ़ेंगे तो ज़हन मे बैठ जाएगी ये किताब!
अभी तक इस किताब का शीर्षक और कवर पेज मेरे ज़हेन मे उलझा हुआ सा है!
अभी तक इस किताब का शीर्षक और कवर पेज मेरे ज़हेन मे उलझा हुआ सा है!
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