Wednesday, 10 December 2014

उन मुलाक़ातो के धब्बे

कुछ गीले-शिकवो की गठरीया छोड़ आया था उसी दरख़्त के छाँव मे रखी बेंच पे जहा आख़िरी बार हम मिले थे! सुना है अब वहाँ आता जाता भी नही है कोई! वो जो दरख़्त था ना, वो भी बूढ़ा हो गया है और बेंच पे अब बस धूल ही बैठा करती है! बड़ी मायूस और सुनसान रहती है वो जगह! कभी कभार गुज़रता हूँ तो मुझसे हज़ार तरीके के सवाल पूछा करती है! पहले तो घूरती है मुझे, जैसे गुस्सा हो, नाराज़ होमुँह-फूला करके नाराज़ बैठ जाती है! पर फिर वहा के किरायेदार 'सन्नाटे' से, मायूसी और खोखलापन ज़ाहिर हो ही जाता है!

 तरह-तरह के बहुत सारे सवाल पूछा करती है, जैसे तुम पूछा करती थी! याद है ना? पता नही बहुत अरसा बीत गया है शायद याद-दाश्त से गुज़र गया हो! या शायद याद-दाश्त के उधदे गदेलो पर नयी ज़िंदगी की साफ-सुधरी नयी डिज़ाइन वाली चादर बिछा दी हो और उसकी चारो कोरे मोढ़ दी हो ताकी उन गदेलो का उड़ा हुआ रंग और फटते हुए रूहे जो झाँकते है पुर्जो से निकल कर, उन पर नज़र ना पड़े! कभी पानी की तरह गुड-मूड होके एक तरफ हो जाते है! एसा कभी-कभार  हमारे रिश्ते मे भी हुआ करता था, तुम सारा गुस्सा अपनी तरफ ले लिया करती थी और मेरी तरफ सिर्फ़ ख़ालीपन बचा रहता था! यही सोच कर फिर मे आगे बढ़ जाता हूँ उस जगह को "अपना ख़याल रखना" और "ज़िंदगी रही तो मिलेंगे" कहके!



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