Wednesday, 11 February 2015

कोशिशे

ऐसे लगता है जैसे अंदर ही अंदर एक दिल काँच के मानी टूट ता जा रहा है और उसी के टुकड़े सीने मे चुभ रहे हो और फिर गले मे आते है खलिश बनके जब किसी गुफ्तगू को परवाज़ देने की कोशिश करता हूँ! Puzzles की तरह अनंत कोशिशे करता हूँ सुलझाने की पर जैसे सूरज कैसे बाज़ आ सकता है अपने पाबंद दस्तूर से वैसे ही एक वो खालिश के टुकड़े अटकते है हलक़ मे! दरिया-ए-नील से भी गहरे ख़यालो मे डुबकिया लगती मेरी नफ़ज़ कभी भूल जाती है दोनो जाहानो मे से पहले जहाँ को जिसका भी सफ़र तेय करता है, गुमराह ज़िंदा लाश बनकर नही एक अफ़ज़ल और बेहतर तरीक़ो से जीना पड़ेगा!

ज़िंदगी की इसी जद्दोजेहेद मे ख़याली पुलाओ को पका लेता हूँ, पर ख़ाता नही हूँ!

कोशिशे रहेंगी बेहतर बनने की!

खुदा के साथ साथ खुद को भी खुश रखने की!




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